प्रस्तावना
यह कहावत निराश मन को आशा बधाने वाली तथा उत्साही मन को विजय दिलाने वाली है|कभी-कभी हम अपनी शक्ति अथवा बल का सही अनुमान नहीं लगा पाते हैं और हार मान कर या तो चुपचाप बैठ जाते हैं या हार से बचने और हार के कुपरिणामों को भोगना ना पड़े इसके लिए हम भाग खड़े होते हैं । यह स्थिति हमारे हीन मानसिकता की परिचायक है l सच्चे वीर कभी परेशानी से नहीं घबराते नहीं | उनके सामने चाहे कितना ही बड़ा संकट आए वह हंसते-हंसते उसे झेल जाते हैं।
जीवन मे सफलता और असफलता का मन से संबंध
मनुष्य का जीवन खेल के मैदान के समान है। यहां हर व्यक्ति खिलाड़ी है ।खेल में विजय प्राप्त करने के लिए खिलाड़ी को चुस्त और तंदुरुस्त होने के साथ-साथ अपने आप पर भरोसा भी होना चाहिए। जिसका मन मजबूत है वही सच्चे अर्थ में तंदुरुस्त और अपने आप पर भरोसा रखने वाला होता है। खेल में कभी जीत होती है तो कभी हार होती है ।इसी प्रकार जीवन में भी कभी सफलता मिलती है तो कभी असफलता। जिसका मन मजबूत है वह अपनी हार से भी प्रेरणा लेता है उसकी हार उसके स्वाभिमान को कुरेदती रहती है ।वह लगातार सफलता पाने की कोशिश करता रहता है और अपनी हार को जीत में बदल कर ही चैन लेता है।
बेकाबू मन की चंचलता
मन चंचल है वह कभी भी किसी के बस में नहीं रहता है। कहने का तात्पर्य है कि कभी-कभी मन शेखी बघारने लगता है, तो कभी-कभी निढाल हो जाता है ।कभी-कभी बुरी बुरी कल्पनाएं करके अकारण अपने आप को मकड़जाल में फंसा लेता है। ऐसी परिस्थिति में मन को कैसे उबारा जाए ,उसे कैसे स्थिर और सबल बनाया जाए, यह भी एक विचारणीय प्रश्न है। कभी युद्ध के मैदान में अर्जुन ने भी श्री कृष्ण से ऐसा ही प्रश्न किया था। श्री कृष्ण जी मन बड़ा चंचल है इसकी चंचलता को रोकना हवा को रोकने जैसे दुष्कर है। क्या करूं? मैं इसे सबल सचेष्ट करने के लिए प्रयासरत हूं ,किंतु अपने सगे संबंधियों का विनाश करने के लिए यह तैयार ही नहीं हो रहा है।
श्री कृष्ण जी का अर्जुन को उपदेश
इस पर भगवान श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को समझाते हुए कहा था कि हे! अर्जुन तेरा मन निराधार और अशोभनीय चिंताओं से आकुल है, जिसकी वजह से तुझे कर्तव्य बोध ही नहीं हो रहा है। तू अभ्यास कर तथा मायामोह से दूर हट कर अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए सचेत हो जा। अंत में अर्जुन के मन पर कृष्ण के कथन का असर हुआ और वह अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए उठ खड़ा हुआ।
हार जीत का मन पर प्रभाव
हर जीत का असली रूप क्या है ?जिस जीत से हम घमंड में फुल उठते हैं और अपनी प्रगति धीमी कर देते हैं, वह वास्तव में हमारी हार की भूमिका ही होती है। जिस हार से प्रेरणा लेकर हम दूने उत्साह के साथ संघर्ष में लग जाते हैं वह सच्ची विजय का कारण बन जाता है। किसी एक जानकार मनुष्य ने सही ही कहा है कि हमें अपनी जीत पर खुशी से पागल नहीं होना चाहिए। इसी प्रकार अपनी हार पर धीरज खोकर निराश के सागर में डूब भी नहीं जाना चाहिए। हार और जीत दोनों दशाओं में हमें स्वाभाविक गति से अपनी मंजिल की ओर बढ़ते रहना चाहिए ।
मन की प्रबल इच्छाशक्ति
एक बार एक मां और बेटा जंगल में घास काटने गए थे। बच्चा छोटा था शायद 5 वर्ष का होगा। उस पर किसी भूखे तेंदुए ने आक्रमण कर दिया। बच्चा चिल्लाया तेंदुआ दूसरा वार करने ही वाला था कि मां ने उसे देखा और तत्काल दराती से उस पर धावा बोल दिया और थोड़ी देर में उस तेंदुए का अंत कर डाला। कहने का तात्पर्य है कि यदि उस परिस्थिति में मां का मन जरा भी भयभीत हो जाता या उसे अपने प्राणों का मोह सता देता तो वह तेंदुआ उस बालक को खा जाता। उस मां के मन की प्रबल इच्छा शक्ति ने ही उस बालक की रक्षा की।
उपसंहार
इसीलिए कहा जाता है कि- ‘मन के हारे हार है और मन के जीते जीत‘
👉 HOW TO SAVE TAX UNDER SECTION 80C